Friday, June 5, 2020

पृथ्वी की गोद में


बनी रहे साफ स्वच्छ निर्मल

धरा हम सभी की

ये पृथ्वी हमसे नहीं।

हम पृथ्वी से हैं ।


यह चायनीज वायरस

आज अवसर है एक

कि जानें हम अपनी सीमाएं

तय करें अपनी रेखाएं।


सीमित संसाधनों का

न्यूनतम उपभोग कर सकें

इस जीवन की अवधि को

दुगुना कर सकें।


प्रकृति की मनोरम गोद में

सांस लें खुले आसमान में

विचरें खुली जमीन में

साफ नदियां और स्वच्छ हवा।

पर्यावरण में पारिस्थितिकीय सन्तुलन

बरकरार रहे हमीं प्राणियों से।


आओ यह प्रण लें और

एक बीज जरूर दबा दें

पृथ्वी की गोद में

क्या पता विशाल वृक्ष का रूप

ले ले वह भविष्य में।


जिसकी छांव हमें न सही

आने वाली पीढ़ी को मिलेगी,

ये संसाधन हमारे लिए ही नहीं

हैं आने वाली कई पीढ़ियों के भी

आज जरूरी है सोचें हम

कि क्या देकर जायेंगे उन्हें हम।

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Thursday, October 10, 2019

भारत, अब भी विकासशील है!

तबाही दूर नहीं, सोने की चिड़िया की

अभी तो कुतरे गए हैं पंख,

आने वाले वक्त में,

खत्म हो जाएंगे जंगल,

दूषित हो जाएंगी नदियां,

फटने लगेंगे कान के पर्दे,

पर आधुनिक मानव,अभी सुविधाएं चाहता है।


भारत, अब भी विकासशील है

सम्भवतः पचास साल बाद भी रहेगा

विकास की 'रेस' में,दौड़ रहा निरन्तर

प्रकृति के दोहन में,जरा पीछे नहीं हटेगा।


खत्म कर दिए जाते हैं,जंगल के जंगल

यहां विकास के नाम पर,

फिर बिछा दी जातीं है सड़कें और पटरियां,

 निर्मित होती जा रहीं गगनचुंबी इमारतें।

लोग नहीं करते परवाह जंगलों की,

पर वे जमीन से खत्म होकर

उग आते हैं उनके अपने भीतर,

जिन्हें काट पाने का  सामर्थ्य 

नहीं जुटा पाते वे अंत तक।


सड़कों पर सरपट दौड़ती गाड़ियां

रोज़ उगलती हैं विषैला जहर,

जो धीरे धीरे घुलता शरीर में

और विकास से पहले ही, आ जाती है मौत।


शायद अर्थ से ही 'अर्थ' का विनाश हो रहा

क्या यहीं रुकेगी ये विनाशलीला,

या ला पटकेगीे हमे उस खण्डहर में,

जहां भावनाएँ दीवारों से कुरेदनी पड़ेगी...!

Sunday, August 25, 2019

छबीली



आज का दिन उसके लिए और दिनों से भिन्न था। वह उठती, थोड़ा चल - फिर लेती और आकर बैठ जाती अपनी जगह पर, वही चिरपरिचित प्लास्टिक की टोकरी और कैंचीनुमा कटर उठाये और काटती रहती कुट..कुट..कुट...जैसे टोकरी में पड़े उन रबड़ के ठोस टुकड़ो से वो हल्की परत नहीं, अपने जीवन के स्वप्न काटती जाती हो। लेकिन वह थोड़ी देर बैठ पाती और अचानक फिर उठ कर चल पड़ती। उसका दर्द बढ़ता ही जा रहा था, उसे लगा इस बार जरूर अस्पताल जाना पड़ सकता है लेकिन उसकी सुनेगा कौन? प्रश्न हवा में तैर गया और फिर वह उसी टोकरी को पकड़ कर बैठ गयी।

लड़कियां समझ रहीं थीं मम्मी परेशान हैं, उन्होंने कहा 'मम्मी तुम आराम कर लो इन्हें हम पूरा कर देंगे।' पर उसने आराम करना कभी सीखा ही कहाँ था? जब मायके में थी दौड़ दौड़ कर घर का सारा काम कर दिया करती थी,घर की लाडली बच्ची और उसका नाम छबीली रख दिया गया, असली नाम क्या था उसे खुद मालूम नहीं। यदि स्कूल गयी होती तो जरूर विरोध करती 'ये भी कोई नाम है, मेरा नाम शांति रखो' पर उसने तो कभी स्कूल का दरवाजा तक नहीं देखा था। फिर तब उस समय गांवों में स्कूल हुआ भी कहाँ करते थे, वो भी लड़कियों के लिए! देश आजाद हो गया तो क्या, स्त्रियां तो अभी भी वहीं थी उनकी हालत जैसे पहले थी वैसी ही अब भी। उसकी मां ने उसे वही सिखाया जो उनकी माँ ने उन्हें सिखाया था.. सिलाई, कढ़ाई, बुनाई और स्वादिष्ट भोजन बनाना.. पराये घर जाकर यही सब तो करना पड़ता है। एकाएक उसकी चेतना लौट आयी, उसने कहा वो ठीक है बस रह रह कर बेचैनी सी उठ जाती है।

ढलती शाम के साथ उसका दर्द भी बढ़ने लगा,उसने किसी को नहीं बताया पर रात होते न होते उसकी शक्ति जैसे जवाब देने लगी, उसने एक ही रट पकड़ ली "बीबी मोय अस्पताल ले चल, अबकी नाय बचूँगी" लेकिन बीबी के हाथ में उसे दिलासा देने के सिवाय कुछ न था, वे बोलती जातीं -"धीरज धर लाली सब ठीक है जायेगो, और बालक तो भये जेउ है जायेगो।" पर उसे धीरज की नहीं अस्पताल और डॉक्टर की आवश्यकता थी।

उसे रह रह का अपने पुराने दिन याद आते जाते और उसका मन पंछी बनकर उड़ जाता उसी समय में जब वह अपने विवाह से खुश थी, खुश थी क्योंकि उसकी बीबी यानी बड़ी बहन और उसका, एक ही घर में विवाह तय हुआ, आखिर विवाह तो उनका होना ही था। माता - पिता भी यह सोचकर संतुष्ट हो गए कि दो तो पार लगीं, यहां संग रहती आयी हैं वहां भी बिना परेशानी के रह लेंगी फिर अलग अलग वर ढूंढने की भागदौड़ और उनके अलग - अलग विवाह का खर्च दोनों बच गए।
✍ . . . . . क्रमशः

Wednesday, June 19, 2019

संतुष्ट है भारत

मैं चाहती थी एक कविता लिखना

पर वो शब्द आते नहीं मेरे ज़हन में

जो बयां कर सके उन संवेदनाओ को,

जो महसूस होती हैं उन हर एक माता-पिताओं को,

जिनके नोनिहालों ने ऑक्सीजन की कमी से

तोड़ दी थीं सांसे, छोड़ दिया था शरीर,

और चले गए इस दुनिया से कहीं बहुत दूर।


जिनकी उम्मीदें पंख लगने से पहले ही

कटने लगी हैं उस जानलेवा बीमारी से

जिसमें खत्म होते जा रहे हैं

वे नन्हें नन्हें बचपन

जिन्हें अभी खेलना था

पकड़म-पकड़ाई और छुपन-छुपाई

दोष किसका है!

उन मासूमों का या फिर उस राजनीति का?

जो संसद में मुद्दों की जगह "नारे" परोसती है,

अगर कुछ घट जाये तो विपक्ष को कोसती है।


राख हो जाते हैं वो देश के युवा

आग में जलकर

जिन्हें भावी आईपीएस,टीचर और डॉक्टर बनना है,

न बचा सके उन्हें अग्निशमन यन्त्र 

और रक्षामंत्रालय के मंत्री ही

बस देश का मुद्दा रहा सबको राष्ट्रवादी बनना है।


पंखे से झूलते पाए जाते हैं

शिक्षण संस्थानों में वे छात्र

जो छोड़ जाते हैं बेबसी में

कुछ प्रश्नचिह्न इस व्यवस्था पर

जो लाख कोशिशों के बाद भी 

ढलती नहीं,बदलती नहीं।

आख़िर कौन सन्तुष्ट है भारत की नीतियों से,

जिसकी अर्थव्यवस्था सही ढंग से चलती नहीं।


शहीद होते जाते हैं देश के जवान

कभी आतंकवादी हमलों में तो

कभी देश की सीमाओं पर,

कोई नहीं पूछने जाता

क्या गुजरती है उनके परिवार पर।

घटनाएं घटती हैं और फिर अखबारों में

दब जातीं हैं कहीं गहरे अतल में

कोई कार्यवाही नहीं,सुनवाई नहीं

इस भारतीय ससंद के पटल में।


ऐसा हाल हो चुका है अब

उस सोने की चिड़िया रूपी भारत का

जहाँ बालक,किशोर,प्रौढ़ और जवान

देश का हर नागरिक है परेशान,

शिक्षा नहीं, स्वास्थ्य नहीं, रोजगार नहीं

फिर कैसे है ये भारत मेरा महान..!!

Friday, May 24, 2019

Admit card JNU


दो दिन बाद #जेएनयू की प्रवेश परीक्षा है और ऐसे समय में परीक्षा केंद्र का बदला जाना क्या दर्शाता है? कई छात्र तो अभी भी ऐसे होंगे जिन्हें इसकी जानकारी नहीं होगी कि पेपर से चार दिन पहले परीक्षा केंद्रों में बदलाव किया गया है। #Mphil और #PHD के दोनों पेपर एक दिन होने पर भी परीक्षा के केंद्र, एक ही जगह न रखकर अलग अलग दिए हैं। इसके अलावा जो नए परीक्षा केंद्र दिए गए हैं वे एक दूसरे से इतनी दूरी पर है कि कोई सहज ही वहां नहीं पहुंच पायेगा,इससे उसे पेपर छोड़ना ही पड़ सकता है। इसमें भी दूरी की बात तो ठीक थी परंतु केंद्र भी ऐसे दिये गए हैं जिनका गूगल मैप में नामोनिशान तक नहीं है।अब यदि किसी का पेपर छूट जाता है तो इसकी जिम्मेदारी किसकी होगी, #NTA की या स्वयं #छात्र की?
न जाने क्यों आज ऐसे समय में मुझे #प्रतापनारायण_मिश्र की वो पंक्तियाँ बहुत याद आ रही हैं जिनमें वे कहते हैं कि-
"अभी देखिये क्या दशा देश की हो,
बदलता है रंग आसमा कैसे कैसे।"
ये देश की नई सरकार के बनने से सम्बंधित नहीं है, बस मेरे जैसे कुछ युवाओं के भविष्य से सम्बंधित है, जो मेहनत और जद्दोजहद से आगे बढ़ने के लिए संघर्षरत हैं। आज के दौर में जब छात्र को ज्ञान के अलावा कुछ इधर -उधर भी हाथ-पांव चलाने के बाद सफलता हासिल होती है, ऐसे में कुछ मेरे जैसे छात्र जब अपनी मंजिल की ओर कदम बढ़ाते है तो कई कठिनाइयों का सामना करना ही पड़ता है और वह भी इतनी कि वे एकदम निराशावादी बन जाते हैं कि जाने मंजिल मिलेगी भी या नहीं।
#JNU_Admit_card

पृथ्वी की गोद में

बनी रहे साफ स्वच्छ निर्मल धरा हम सभी की ये पृथ्वी हमसे नहीं। हम पृथ्वी से हैं । यह चायनीज वायरस आज अवसर है एक कि जानें हम अपनी सीमाएं तय करे...